घुंघराले बालों वाले अज़हर इकबाल हर दिल अज़ीज़ शायर हैं। उनकी लिखावट दिल छू जाती है। अज़हर साहब के शेर दिल नहीं बल्कि रूह में बस जाते हैं।
ग़ज़ल 1
घुटन सी होने लगी उस के पास जाते हुए
मैं ख़ुद से रूठ गया हूँ उसे मनाते हुए
ये ज़ख़्म ज़ख़्म मनाज़िर लहू लहू चेहरे
कहाँ चले गए वो लोग हँसते गाते हुए
न जाने ख़त्म हुई कब हमारी आज़ादी
तअल्लुक़ात की पाबंदियाँ निभाते हुए
है अब भी बिस्तर-ए-जाँ पर तिरे बदन की शिकन
मैं ख़ुद ही मिटने लगा हूँ उसे मिटाते हुए
तुम्हारे आने की उम्मीद बर नहीं आती
मैं राख होने लगा हूँ दिए जलाते हुए
ग़ज़ल 2
ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से
कि उस ने हम को रुलाया नहीं बहुत दिन से
चलो कि ख़ाक उड़ाएँ चलो शराब पिएँ
किसी का हिज्र मनाया नहीं बहुत दिन से
ये कैफ़ियत है मेरी जान अब तुझे खो कर
कि हम ने ख़ुद को भी पाया नहीं बहुत दिन से
हर एक शख़्स यहाँ महव-ए-ख़्वाब लगता है
किसी ने हम को जगाया नहीं बहुत दिन से
ये ख़ौफ़ है कि रगों में लहू न जम जाए
तुम्हें गले से लगाया नहीं बहुत दिन से
ग़ज़ल 3
गुलाब चाँदनी-रातों पे वार आए हम
तुम्हारे होंटों का सदक़ा उतार आए हम
वो एक झील थी शफ़्फ़ाफ़ नील पानी की
और उस में डूब को ख़ुद को निखार आए हम
तिरे ही लम्स से उन का ख़िराज मुमकिन है
तिरे बग़ैर जो उम्रें गुज़ार आए हम
फिर उस गली से गुज़रना पड़ा तिरी ख़ातिर
फिर उस गली से बहुत बे-क़रार आए हम
ये क्या सितम है कि इस नश्शा-ए-मोहब्बत में
तिरे सिवा भी किसी को पुकार आए हम
ग़ज़ल 4
तिरी सम्त जाने का रास्ता नहीं हो रहा
रह-ए-इश्क़ में कोई मो’जिज़ा नहीं हो रहा
कोई आइना हो जो ख़ुद से मुझ को मिला सके
मिरा अपने-आप से सामना नहीं हो रहा
तू ख़ुदा-ए-हुस्न-ओ-जमाल है तो हुआ करे
तेरी बंदगी से मिरा भला नहीं हो रहा
कोई रात आ के ठहर गई मिरी ज़ात में
मिरा रौशनी से भी राब्ता नहीं हो रहा
उसे अपने होंटों का लम्स दो कि ये साँस ले
ये जो पेड़ है ये हरा-भरा नहीं हो रहा
ग़ज़ल 5
तुम्हारी याद के दीपक भी अब जलाना क्या
जुदा हुए हैं तो अहद-ए-वफ़ा निभाना क्या
बसीत होने लगी शहर-ए-जाँ पे तारीकी
खुला हुआ है कहीं पर शराब-ख़ाना क्या
खड़े हुए हो मियाँ गुम्बदों के साए में
सदाएँ दे के यहाँ पर फ़रेब खाना क्या
हर एक सम्त यहाँ वहशतों का मस्कन है
जुनूँ के वास्ते सहरा ओ आशियाना क्या
वो चाँद और किसी आसमाँ पे रौशन है
सियाह रात है उस की गली में जाना क्या