आलोक श्रीवास्तव के नाम से कौन नावाकिफ़ होगा। आज की तारीख में आलोक श्रीवास्तव हिंदी ग़ज़ल के सबसे बड़े नामों में एक हैं। इनकी शायरी मशहूर होने के साथ साथ मकबूल भी है। इनकी शायरी में एक ठहराव है जो पाठकों का दिल छू जाती है। पढिए उनकी शानदार पाँच ग़ज़लें।
ग़ज़ल 1
ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बे-ख़बर नहीं
अब तो ख़ुद अपने ख़ून ने भी साफ़ कह दिया
मैं आप का रहूँगा मगर उम्र भर नहीं
आ ही गए हैं ख़्वाब तो फिर जाएँगे कहाँ
आँखों से आगे उन की कोई रहगुज़र नहीं
कितना जिएँ कहाँ से जिएँ और किस लिए
ये इख़्तियार हम पे है तक़दीर पर नहीं
माज़ी की राख उलटीं तो चिंगारियाँ मिलीं
बे-शक किसी को चाहो मगर इस क़दर नहीं
ग़ज़ल 2
जिन बातों को कहना मुश्किल होता है
उन बातों को सहना मुश्किल होता है
इस दुनिया में रह कर हम ने ये जाना
इस दुनिया में रहना मुश्किल होता है
जिस धारा में बहना सब से आसाँ हो
उस धारा में बहना मुश्किल होता है
उस के साथ हमें आसानी है कितनी
उस से ये भी कहना मुश्किल होता है
उस के ता’ने उस के ता’ने होते हैं
मुश्किल से भी सहना मुश्किल होता है
वो सब बातें जो तुम अक्सर कहती हो
उन बातों का सहना मुश्किल होता है
वो बातें जो कहने में आसान लगें
उन बातों का कहना मुश्किल होता है
माज़ी की यादें भी ऐसा सूरज हैं
जिस सूरज का गहना मुश्किल होता है
मैं अपनी दुनिया का ऐसा सूरज हूँ
जिस सूरज का गहना मुश्किल होता है
लगती है ये बहर बहुत आसान मगर
इस में ग़ज़लें कहना मुश्किल होता है
ग़ज़ल 3
तू वफ़ा कर के भूल जा मुझ को
अब ज़रा यूँ भी आज़मा मुझ को
ये ज़माना बुरा नहीं है मगर
अपनी नज़रों से देखना मुझ को
बे-सदा काग़ज़ों में आग लगा
आज की रात गुनगुना मुझ को
तुझ को किस किस में ढूँढता आख़िर
तू भी किस किस से माँगता मुझ को
अब किसी और का पुजारी है
जिस ने माना था देवता मुझ को
ग़ज़ल 4
रोज़ ख़्वाबों में आ के चल दूँगा
तेरी नींदों में यूँ ख़लल दूँगा
मैं नई शाम की अलामत हूँ
ख़ाक सूरज के मुँह पे मल दूँगा
अब नया पैरहन ज़रूरी है
ये बदन शाम तक बदल दूँगा
अपना एहसास छोड़ जाऊँगा
तेरी तन्हाई ले के चल दूँगा
तुम मुझे रोज़ चिट्ठियाँ लिखना
मैं तुम्हें रोज़ इक ग़ज़ल दूँगा
ग़ज़ल 5
मंज़िल पे ध्यान हम ने ज़रा भी अगर दिया
आकाश ने डगर को उजालों से भर दिया
रुकने की भूल हार का कारन न बन सकी
चलने की धुन ने राह को आसान कर दिया
पानी के बुलबुलों का सफ़र जानते हुए
तोहफ़े में दिल न देना था हम ने मगर दिया
पीपल की छाँव बुझ गई तालाब सड़ गए
किस ने ये मेरे गाँव पे एहसान कर दिया
घर खेत गाए बैल रक़म अब कहाँ रहे
जो कुछ था सब निकाल के फ़स्लों में भर दिया
मंडी ने लूट लीं जवाँ-फ़स्लें किसान की
क़र्ज़े ने ख़ुद-कुशी की तरफ़ ध्यान कर दिया
बेहतरीन ग़ज़लें
जी, सारे ग़ज़लें दमदार हैं!